साहित्य से दोस्ती : आप यह सवाल उठा सकते हैं कि साहित्य से दोस्ती क्यों? टीवी और कंप्यूटर के जमाने में भला अब किताबों में क्या रखा है? बहुत से लोग यह भी कहना चाहेंगे कि बहुत पढ़ना-लिखना हो चुका; अब घर-गृहस्थी की फिक्र कर लें या परीक्षा और करियर को देख लें— यही बहुत है। साहित्य पढ़कर भला क्या करना है?
इसका जवाब देने से पहले एक सवाल आपसे। जरा सोचकर बताइए : आप आदमी हैं या मशीन? जाहिर है, आप कहेंगे इसमें सोचना क्या है, दिखाई नहीं देता मैं आदमी हूं। लेकिन तब आप मशीन क्यों बने हुए हैं? जैसे कोई मशीन हर रोज एक ही ढर्रे पर एक ही जैसा काम करती रहती है, क्या आप भी कुछ वैसा ही नहीं करते चले आ रहे हैं? हर रोज एक जैसा ही— वैसे ही सोना, वैसे ही उठना, वैसे ही काम पर निकलना, वैसे ही कुछ सैर-तफरीह वगैरह, वैसे ही जीवन के दुख-दर्द और वैसी ही खुशियां— बिना कुछ नया जुड़े और यहां तक कि बिना यह जाने-समझे कि स्वयं आपने क्या कुछ नया जोड़ा है। कौन जताएगा यह सब आपको? किताबें, और कौन!
एक और सवाल। क्या आप चाहेंगे कि बच्चे कुएं के मेंढक बने रहें? नहीं न। हो सकता है सिर्फ अपने पाठ्यक्रम की किताबों को ही चाट कर उन्हें इम्तिहान में अच्छे नम्बर भी मिल जाएं, या महज घर के पुश्तैनी पेशे से जुड़कर वे कमाने-खाने योग्य हो लें। पर क्या यह कुछ वैसी ही स्थिति नहीं हुई जैसी कुएं में मेंढक की होती है? कुएं के अन्दर के बारे में उस मेंढक की जानकारी अव्वल हो सकती है, उसे वहां खाने-पीने को भी मिलता रहता है, पर कुएं के बाहर की दुनिया से वह पूरी तरह अनभिज्ञ होता है। वह तो खैर मेंढक है— कुआं जो उसे दे दे वह उसकी नियति है। वह उसे बदलने की सोच भी नहीं सकता। पर इंसान की तो यही नियति नहीं हो सकती। अन्यथा आदमी अंतरिक्ष और पाताल में झंडे न गाड़ रहा होता।
भला कौन ऐसा इंसान होगा जो नहीं चाहता कि उसके बच्चों का जीवन उससे भी कहीं बेहतर और सुरक्षित हो? इसका एक ही तरीका है कि बच्चे विवेक-सम्पन्न हों। विवेक आता है तर्क और विचारों से। किताबों में भरे अनुभव और विचार बच्चे के लिए सिर्फ सूचना या मनोरंजन ही नहीं जुटाते, उसे विवेकवान भी बनाते हैं।
कुछ और सवाल। क्या ईश्वर या प्रकृति ने आदमी को परजीवी बनाकर भेजा है जो वह भीख मांगने, दान पर जीने, या अपराध का जीवन चुनने पर बाध्य किया जाता है? जब दुनिया में करने को इतना है (कहते हैं हर नया बच्चा कम से कम 6 आदमियों के लिए काम लेकर दुनिया में आता है) तो सभी के पास स्वस्थ रोजगार क्यों नहीं हैं? जब विज्ञान और तकनीकी ने इतनी प्रगति कर ली है कि मनुष्य हर क्षेत्र में मनमाना उत्पादन कर सकता है तो सभी के लिए शिक्षा, मकान, स्वास्थ्य, बिजली-पानी, सड़क, स्वच्छ पर्यावरण, मनोरंजन की सुविधाएं क्यों नहीं उपलब्ध हो पा रहीं। सोचिए, हम जीवन में जरा-जरा सी बात के लिए समझौते क्यों करते रहते हैं, जरा से लालच के लिए झूठ क्यों बोलने लगते हैं? किसी को औरों की कीमत पर सारी सुविधाएं हथियाने का लाइसेंस कैसे मिल जाता है? कोई देश महाशक्ति बनकर सारी दुनिया पर अपनी इच्छाएं क्यों कर थोपना शुरू कर देता है? क्यों इंसान को किसी हिटलर से घृणा और किसी भगत सिंह से मोहब्बत होनी चाहिए? ये पहेलियां भी हमारे लिए किताबें ही सुलझाती हैं।
और अब अंतिम सवाल। आदमी जानवरों से ही निकला है पर वह जानवरों से भिन्न है— किस अर्थ में? यूं तो जानवर और आदमी दोनों के शरीर में एक जैसे अंग हैं; दोनों का जीवन-चक्र एक जैसा और दोनों की इन्द्रियां एक सी हैं, पर दोनों का विकास-क्रम उन्हें एक दूसरे से भिन्न कर देता है। जानवर झुंड में रहता है और आदमी समाज में। सामाजिक प्राणी होने के नाते ही आदमी राजनीतिक प्राणी भी होता है और सांस्कृतिक प्राणी भी। ‘जंगल का कानून’ और ‘आदमी का कानून’ दो अलग-अलग बातें होती हैं। जानवर को महज उसकी प्रवृत्तियां चलाती हैं— आहार की, प्रजनन की, सुरक्षा की। आदमी विचारों का स्वामी है और वह स्वतंत्रता, बराबरी और बंधुत्व की मंजिल पर पहुंचने की सोचता है।
वेदना का अनुभव दोनों को होता होगा पर दोनों की संवेदना के स्तर में जमीन-आसमान का फर्क है। शोर और संगीत के बीच फर्क कर पाना, गंध से सुगंध को छांटना, या दृश्य में रंग का संतुलन और आहार का स्वाद से सामंजस्य आदमी की चेतना का हिस्सा हैं, जानवर की नहीं। आदमी ही संभव कर पाया है कि वह अपने विचारों एवं अनुभवों का हिसाब-किताब रख सके। जानवर सिर्फ वर्तमान में जीता है; आदमी भूत में भी और भविष्य में भी। जानवर की नियति में है कि वह अपने परिवेश में रहे। यदि उसे किसी अन्य परिवेश में जाना है तो यह तभी संभव है जब उसकी शारीरिक संरचना में जरूरी परिवर्तन हों। पानी के लिए अलग, जमीन के लिए अलग, पेड़ों पर रहने के लिए अलग और हवा के लिए अलग, जबकि आदमी अपने एक भौतिक रूप में ही हर परिवेश का उपयोग करने में सक्षम हो चुका है। अब इस लिहाज से आप स्वयं तय करें कि क्या हम इंसान का जीवन जी भी रहे हैं!
ये सवाल सिर्फ हमारी भौतिक सुविधाओं, शारीरिक संरक्षाओं या आत्म निर्माण के आयाम ही नहीं हैं। ये अंतत: हमारे मानवीय विकास के सशक्तिकरण के सवाल भी हैं। ये सिर्फ तात्कालिक एवं व्यक्तिगत सवाल ही नहीं हैं। ये हमारे इतिहास, भूगोल और समाजशास्त्र से जुड़े सवाल भी हैं। ये इंसान होने के भी सवाल हैं। यहीं से साहित्य से दोस्ती के सफर की शुरुआत होती है— उन अनुभवों से भी परिचय पाने की, उन विचारों को भी जानने की जो हमारी पहले की पीढ़ियां छोड़ गई हैं ताकि हमें नई गुत्थियों को समझने-सुलझाने में मदद मिले।
साहित्य में कल्पना जितनी भी हो हवाई कुछ नहीं होता। साहित्य की समाज में प्रासंगिकता का आधार ही यह है कि हम सम्मिलित अनुभवों/अनुभूतियों/संवेदनाओं से अपनी चेतना को विस्तार देना चाहते हैं। दरअसल जैसी व्यापक मानवीय विश्व-दृष्टि साहित्य हमें देता है, शायद ही कोई और माध्यम वैसा कर सके। तभी इसमें सूचना, मनोरंजन, प्रबोधन ही निहित नहीं है, साहित्य से सशक्तिकरण का साक्षात अनुभव होता है।
साहित्य उपक्रम: साहित्य में पारंपरिक आयामों के साथ-साथ, जीवन/समाज से जुड़े तरह-तरह के समकालीन सरोकारों जैसे वर्ग-दृष्टि, आतंक, भ्रष्टाचार, जनसंख्या, सांप्रदायिकता, जातिवाद, दलित, स्त्री, आदिवासी, धर्म, दुर्घटना, युद्ध, वैश्वीकरण, प्रशासन, रोजगार, आरक्षण, विस्थापन, आपदा, दंगे, काला धन, बाजार, टी वी इत्यादि को भी साहित्य अपने कलेवर में व्यापक स्थान देता है। इसी से समाज में किताबों की उपस्थिति सार्थक एवं उपयोगी हो पाती है। साहित्य उपक्रम साहित्य-कर्मियों का ऐसा प्रयास है जिसके द्वारा जरूरी साहित्य लोगों के बीच उनकी जेब को ध्यान में रखकर पहुंचाया जाता है। ऐसा करना इसलिए जरूरी बन गया क्योंकि साहित्य के प्रकाशन-वितरण-थोक व्यवसाय ने मुनाफाबाजों/बिचौलियों की तो चांदी कर रखी है पर सामान्य पाठक को जरूरी किताबों से वंचित रखने की कीमत पर। दरअसल साहित्य का व्यवसाय इस तरह संचालित किया जाता रहा है कि साहित्य की दुकानें आर्थिक रूप से कारगर नहीं रह सकीं और किताबों की कीमतें पाठकों की व्यक्तिगत क्षमता से बाहर होती गयीं। साहित्य उपक्रम की किताबें इसी असंतुलन को दूर करने की मुहिम का हिस्सा हैं।
इस सारे प्रयास में लेखकों की स्वत:-सक्रिय भूमिका लगातार रेखांकित होती जा रही है। यह स्पष्ट है कि लेखक सिर्फ किताब लिखने/छपने/चर्चित होने/पुरस्कार पाने तक स्वयं को सीमित न करें। वे पहल करके पाठकों के बीच तमाम तरह के विमर्श को ले जाएं— गोष्ठियों/सम्मेलनों/आयोजनों द्वारा ही नहीं, सार्वजनिक पहुँच से भी। वे किताबों की कीमतें आम पाठक की पहुंच में रखने के लिए प्रकाशकों को मजबूर करें। वे लेखन में समकालीन जन-सरोकारों को लाने के प्रति जिम्मेदार ही नहीं, जवाबदेह भी बनें।
मशीनी जीवन से उबरने की साहित्य से दोस्ती की इस मुहिम से आपको अवश्य ही अपनी मानवीय जरूरत की सामग्री मिलेगी— हमारे आयोजन साहित्य के पाठ, प्रस्तुति, प्रदर्शन के स्वस्थ मंच तो हैं ही। इस क्रम में अमर कथाकार प्रेमचंद के 125 वें वर्ष में ‘प्रेमचंद से दोस्ती’ एवं अमर क्रांतिकारी भगत सिंह के 100वें वर्ष को केंद्र बनाकर ‘भगत सिंह से दोस्ती’ कार्यक्रम लगातार हो रहे हैं। ‘लड़कियों का इंकलाब जिंदाबाद’ फरवरी 2006 से और ‘आम्बेडकर से दोस्ती’ कार्यक्रम 14 अप्रैल 2006 से शुरू किए गए हैं। ‘छोटू राम से दोस्ती’ एवं ‘हाली से दोस्ती’ कार्यक्रम भी हैं। वैज्ञानिकता को आधार बनाकर चेतना स्कूलों की श्रृंखला का कार्यभार लिया गया है जिनमें ऐसे बच्चों की प्रारम्भिक शिक्षा का प्रबंध है जो अन्यथा नियमित स्कूलों में नहीं जा पा रहे हैं।
भगत सिंह से दोस्ती : भगत सिंह ने देश को दो नारे दिए— ‘इंकलाब जिंदाबाद’ और ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’। इनका हमारे जीवन में क्रमश: मतलब हुआ— ‘बराबरी के तमाम रूपों की जय’ और ‘इंसानी शोषण की तमाम प्रणालियों की समाप्ति’। इस क्रांतिवीर से दोस्ती हमें स्वार्थ के दलदल से बाहर निकालने का काम करती है ताकि, उस अमर शहीद के शब्दों में, ‘इंसानियत की रूह में हरकत हो’। भगत सिंह ने क्रांति को भारतीय समाज के लिए एक जरूरी सपने के रूप में स्थापित किया, जो आज की भी सच्चाई है।
प्रेमचंद से दोस्ती : ‘साहित्य जीवन को सहज एवं स्वाधीन बनाता है’, प्रेमचंद का यह कथन उनके कथा साहित्य पर एकदम सटीक उतरता है। उनकी कहानियों को पढ़ते हुए हर पाठक को लगता है कि जैसे वह स्वयं अपने ही जीवन को पढ़ रहा हो। प्रेमचंद इस अर्थ में महान कहानीकार हैं कि लगातार एक के बाद दूसरी पीढ़ी उनकी कहानियों से सहज संवाद करती आ रही है। उनके चरित्रों को जानना जैसे भारतीय समाज की एक स्वाभाविक आदत बन चुकी है।
अम्बेडकर से दोस्ती : अम्बेडकर ने कहा था— ‘क्या आपको लगता है कि हम संविधान द्वारा प्रदत्त सहूलियतों के लिए सदा-सदा के लिए अछूत बने रहें? हम मनुष्यत्व पाने का प्रयत्न कर रहे हैं।’ जातिवाद के समूल नाश की कट्टर वकालत करते हुए उन्होंने फ्रांसीसी क्रांति के आदर्शों समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व को अपना राजनीतिक आदर्श बनाया। उनका दलित-संघर्ष उनके इस कथन में निहित है— ‘सभी मनुष्य एक ही मिट्टी के बने हुए हैं और उन्हें एक अधिकार भी है कि अपने साथ अच्छे व्यवहार की मांग करें।’
छोटूराम से दोस्ती : किसान-मसीहा के नाम से विख्यात छोटूराम के विचार आज और भी संगत हो चले हैं जब भारत का किसान कर्ज, विस्थापन और बाजार के दुष्चक्र में फंसा छटपटा रहा है। छोटू राम ने अंग्रेजी राज के समय में तब के पंजाब सूबे के बेजुबान किसानों को आवाज प्रदान की थी और वास्तविक दुश्मन की पहचान करने की ललकार लगाई थी। देश-विभाजन के इस घोर विरोधी के जनवरी 1945 में निधन पर एक प्रमुख अखबार की टिप्पणी थी— उन्मत्त साम्प्रदायिकता के बार-बार होने वाले घोर अत्याचार के समक्ष वे जिब्राल्टर की चट्टान की भांति दृढ़ खड़े रहे।
हाली से दोस्ती : उर्दू साहित्य के युग प्रवर्तकों में से एक ख्वाजा अल्ताफ हुसैन हाली पानीपती की अदबी सरगर्मियां 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम और महान गालिब के साए में परवान चढ़ीं। उन्होंने लिखा : फरिश्तों से बेहतर है इंसान बनना, मगर इसमें पड़ती है मेहनत जियादा। प्रेमचंद के शब्दों में, उन्होंने ‘उर्दू शायरी को अलंकारों और कृत्रिम भावों और विरह के पचड़ों से मुक्त करके उसमें जागृति पैदा करने वाली भावनाएं भरी।’ साम्प्रदायिक सद्भाव और औरत के हक में उन्होंने बेहद शानदार रचनाएं की हैं जो आज भी उतनी ही संगत एवं प्रभावी नजर आती हैं।
लड़कियों का इंकलाब जिंदाबाद : ‘जैसे ही लड़की कुछ नया करना चाहती है/अकेली पड़ जाती है,’ पारम्परिक पुरुष-निर्भरता एवं सामाजिक दृष्टि ने उसे घर से लेकर बाहर तक असहाय एवं असुरक्षित बना कर रखा। महिला-उद्धार से महिला-उत्थान और उसके बाद भी तमाम कानूनी, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक सशक्तिकरण के कार्यक्रम समाज में उसकी स्थिति में ज्यादा फर्क नहीं ला पाए हैं। जाहिर है उसे भी इंकलाब खैरात में नहीं मिलेगा। जरूरी है साथ ही साथ उसके विचारों का भी सशक्तिकरण।