Description

दलित विमर्श की भूमिका

जिज्ञासा

दलित विमर्श : दलित समस्या केवल दलितों की न होकर सारे भारतीय समाज की समस्या है। परंपरावादी हिंदू चिंतन में अपरिवर्तनीय वर्णव्यवस्था राष्ट्र का आधार हो सकती है पर दलित चिंतन में इस संकीर्ण अर्थ में राष्ट्र की अवधारणा के लिए स्थान नहीं हो सकता। डॉ. आंबेडकर ने भी स्पष्ट किया है कि जाति व्यवस्था केवल श्रम का नहीं बल्कि श्रमिकों का भी विभाजन है। इसलिए जातीय व्यवस्था से लड़े बिना आर्थिक व्यवस्था से लड़ना दलित समस्या का हल नहीं बन सकता। अछूत जातियों के मानवीयकरण का संपूर्ण चितन ही दलित विमर्श की अर्थवत्ता है।

कंवल भारती : आज के सक्रिय दलित विचारकों में कंवल भारती अग्रणी पंक्ति में आते हैं। उनके सहज तर्कों एवं वैज्ञानिक नजरिए से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता। दर्जन भर से अधिक पुस्तकों के अपने रचना- क्रम में वे लगातार लोगों के बीच जाते रहे हैं। उनके वैचारिक प्रयासों में निहित संभावना को दलित पाठक ही नहीं बल्कि वामपंथी तबका भी गंभीरता से ले रहा है। अपनी समग्र मानवीय दृष्टि की बदौलत ही भारती दलित विमर्श के ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनैतिक, साहित्यिक आयामों को इस पुस्तक में बखूबी पेश कर सके हैं।

दूसरा संस्करण : छह महीने में पुस्तक का दूसरा संस्करण आ जाना विषय की प्रासंगिकता का प्रमाण है। पहले संस्करण ने जैसी व्यापक प्रतिक्रिया अर्जित की है वही दूसरे संस्करण के परिवर्द्धन एवं संशोधन का प्रेरणा-स्रोत बना है।