• Wtiter    - Maitreyi Pushpa लेखक      - मैत्रेयी पुष्पा  

    | SAHITYA UPKRAM | HINDI| PAGE- 270 | 2017 

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    kedar prasad meena

    Author - Kedarprasad Meena लेखक/ - केदारप्रसाद मीणा

    | SAHITYA UPKRAM | HINDI| PAGE- 183  | 2012   |
  •  Editor - Subhash Chandra  संपादक - सुभाष चंद्र  | SAHITYA UPKRAM | HINDI| PAGE- 79| 2015 |
  • Editor - Vikash Narain Rai संपादक / - विकास नारायण राय

     SAHITYA UPKRAM | HINDI| PAGE- 79  | 2016    |

  • Author – Rajiv Ranjan Giri   लेखक - राजीव रंजन गिरी  | SAHITYA UPKRAM | HINDI| PAGE- 47 | 2015 |
  • Author – Amrit Mehta  लेखक -  अमृत मेहता  | SAHITYA UPKRAM | HINDI| PAGE-240  | 2006 |
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    क्रांति हौव्वा नहीं : भगत सिंह को दो तरह का हौव्वा बनाकर पेश किया जाता है। एक तो व्यावहारिकता का कि भगत सिंह पड़ोसी के घर ही अच्छा लगता है- अपने घर में उसका होना आज की परिस्थितियों में वांछित नहीं। दूसरा आदर्श का कि विचारों- कार्यशालाओं से भगत सिंह को नहीं अपनाया जा सकता- उसके लिए जेल और मृत्यु की कामना करने की जरूरत होती है। इन दोनों पूर्वाग्रहों के पीछे भगत सिंह की वह छवि काम कर रही होती है जो उनके दो बेहद प्रचलित प्रकरणों— सांडर्स-वध और एसेम्बली-बम धमाका - को एकांतिक रूप से देखने से बनी है। क्योंकि यही प्रकरण उनकी लोकप्रिय छवि का आधार भी बनाए जाते हैं, लिहाजा उपरोक्त पूर्वाग्रहों को सार्वजनिक रूप से मीन-मेख का सामना प्रायः नहीं करना पड़ता । पर भगत सिंह को पूर्वाग्रहों से नहीं, तर्क से जानना होगा - एकांतिक रूप से नहीं परिप्रेक्ष्य में देखना होगा। वे क्रांतिकारी थे, आतंकवादी नहीं— तभी उन्होंने कभी भी सांडर्स- वध को ग्लोरिफाई नहीं किया और असेम्बली में बम फोड़ते समय यह सावधानी भी रखी कि किसी की जान न जाय। वे हाड़-मांस के ऐसे मनुष्य थे जिसके प्रेम, स्वप्न, जीवन, राजनीति, देश-प्रेम, गुलामी और धर्म जैसे विषयों पर बेहद लौकिक विचार थे। तभी उन्होंने मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के हर स्वरूप — साम्राज्यवाद, सांप्रदायिकता, जातिवाद, असमानता, भाषावाद, भेदभाव इत्यादि का पुरजोर विरोध किया। फांसी से एक दिन पूर्व साथियों को अंतिम पत्र में उन्होंने लिखा- 'स्वाभाविक है कि जीने की इच्छा मुझमें भी होनी चाहिए, मैं इसे छिपाना नहीं चाहता। जब उन्होंने मृत्यु को चुना तब भी लौकिकता और तार्किकता के दम पर ही। अगर वे सिर पर कफन बांधे मृत्यु के आलिंगन को आतुर कोई अलौकिक सिरफिरे मात्र होते तो सांडर्स-वध के समय ही फांसी का वरण कर लेते। सांडर्स वध के बाद फरारी और असेम्बली बम कांड के बाद, जब वे भाग सकते थे, समर्पण उनकी अदम्य तार्किकता का ही परिचायक है। भगत सिंह से दोस्ती का मतलब उनकी इसी लौकिकता और तार्किकता को आत्मसात करना भी है। इन अर्थों में यह एक कठिन रास्ता है— न कि जेल, पुलिस, मौत जैसे संदर्भ में। क्या हम ईमानदारी, सच्चाई, साहस, भाईचारा, बराबरी और देश-प्रेम को अपने जीवन का अंग बनाना चाहते हैं? क्या हम शोषण के तमाम रूपों को पहचानने और फिर उनसे लोहा लेने की शुरूआत खुद से, अपने परिवार से, अपने परिवेश से कर सकते हैं? यदि हां, तो घर-घर में भगत सिंह होंगे ही जो शोषण के तमाम पारिवारिक, सामाजिक, जातीय, लैंगिक, राजनैतिक, साम्राज्यवादी एवं आर्थिक रूपों की पहचान करेंगे और उनसे लोहा लेंगे। जेल से भगत सिंह का कहा याद रखिए- 'क्रांतिकारी को निरर्थक आतंकवादी कार्रवाइयों और व्यक्तिगत आत्म- बलिदान के दुषित चक्र में न डाला जाय। सभी के लिए उत्साहवर्धक आदर्श, उद्देश्य के लिए मरना न होकर उद्देश्य के लिए जीना और वह भी लाभदायक तरीके से योग्य रूप में जीना — होना चाहिए।' -विकास नारायण राय
  • Author - Gayatri  Arya  लेखिका - गायित्री आर्या | Sahitya Upkram | Hindi  | Page- 87 | 2016 |
  • Author - lal Bahadur verma लेखक     - लाल बहादुर वर्मा  | SAHITYA UPKRAM | HINDI| PAGE- 352| 2006 |
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    कविता प्रकृति से ही केन्द्राभिसारी (centrifugal) होती है। इस युग में भी, जब 'सन्तन' को 'सीकरी' से काम पड़ जाता है कभी-कभी, और 'फकीर' बने रहने का आत्मबल नहीं जुटा पाते साहित्यकार-व्यवस्था-विरोध का तेज उनमें होता है। ऐसे में 'व्यवस्था', 'प्रबन्धन' या 'सत्ता' से जुड़े लोग जब कविता लिखते हैं- उन्हें आत्मालोचन, संशयात्मक विश्लेषण के वे ही आघात झेलने होते हैं जो रवीन्द्रनाथ ठाकुर के 'गोरा' ने झेले थे! कविता एक सार्वजनिक आँगन है-'चौराहा' और 'देहली' के बीच की जगह! चूँकि वह सबका 'स्पेस' है-'घुसपैठिया' वहाँ कोई होता नहीं ! जैसे कोई 'गा' सकता है, कोई 'लिख' भी सकता है! एक हाइड-पार्क है कविता! खिड़की खोलने का मूलाधिकार आप किसी से भी कैसे छीन सकते हैं ? वैकल्पिक विश्व की एक 'तड़प' तो सबके भीतर होती है- 'संज्ञा' की विडम्बनाएँ करीब से देखने वालों के भीतर क्यों नहीं हों भला ? बड़े शहरों के 'गरीब' और कस्बों के निम्न मध्यवर्गीय 'मुहल्लों' में एक दृश्य आम होता है! फुटपाथ पर ही 'खाट' या 'मचिया' बिछी है-हुक्का सजा है, धूप में सब्जियाँ कतरी जा रही हैं, हो रहा है-विचार-विनिमय, बच्चे 'डेंगा-पानी' खेल रहे हैं! फुटपाथ पर बँधी गायें भी रँभा रही हैं.... चल रहा है जीवन-चक्र और जीवन का गाझिन सूत्र सुलझाए जाने का सरस सिलसिला भी ! जीवन के गाझिन सूत्र सुलझाए जाने का सरस सिलसिला ही है कविता- यहीं से विकासजी की कविताओं के सूत्र भी पकड़े जा सकते हैं। सार्वजनिक खाट की तरह ही उन्होंने 'कुर्सी' फुटपाथ पर उतारी है। राजनीतिक प्रभुता की एक सत्ता होती होगी, पर उसके समानांतर सांस्कृतिक जीवन की सत्ता कम महत्त्वपूर्ण नहीं। सुनहरे पाए वाली एक सुनहरी कुर्सी के बरक्स सुतली और मूँज की तिपाइयाँ कम बड़ा 'आसन' नहीं। सच्चे सिंहासन तो मूँज की तिपाइयाँ हैं-विकासजी की कविता ये ही समझने की ताकत पैदा करती हैं! सहज बातचीत की लय में बढ़ने वाली ये छोटी-बड़ी कविताएँ हैं तो विमर्श प्रधान किन्तु बोझिल नहीं ! आत्ममंथन से अधिक ये 'पर्यवेक्षण' की कविताएं हैं! विज्ञान के विद्यार्थी जैसी तटस्थता से वे अपनी प्रैक्टिकल फाइल के तीन कॉलम बनाते हैं—प्रयोग-निरीक्षण और निष्कर्ष - उनकी कविता जीवन को तर्क निकष पर कसती है ! अलग-अलग जीवन-सन्दर्भ कविता में नए ढंग से अनुस्यूत कैसे हो सकते हैं- इसके दो खूबसूरत उदाहरण 'शंघाई' और 'यूटोपिया' हैं।
  • Author -  Marget Shrainar लेखक -  मार्गेट श्राइनर  Sahitya Upkram | Hindi | Page-120 | 2012 |
  • Author - Amrit Mehta लेखक  - अमृत मेहता    |Sahitya Upkram| Hindi | Page - 94 | 2011 |
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